Saturday 24 October 2015

हिंदी समुदायों के बीच पुल है



भारत के हाई कमीशन , सुवा में दिनांक 23  अक्तूबर , 2015 को वार्षिक हिंदी दिवस का आयोजन भारत के हाई कमीशन, सुवा की एल.सी.आई. बिल्डिंग में आयोजित किया गया। कार्यक्रम का विशेष आकर्षण काईबीती समाज के विद्वान, गायक व विद्यार्थियों की भागीदारी थी। इसके अतिरिक्त कार्यक्रम में विश्व िहंदी सम्मेलन में भाग लेने गए फीजी के प्रतिनिधिमंडल का अभिनंदन किया गया। फीजी का आजतक का सबसे बड़ा 19 सदस्यीय दल भारत में 10 से 12 सितंबर को आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लेने और भारत के प्रमुख ऐतिहासिक और धार्मिक स्थानों को देखने के लिए गया था ।  कार्यक्रम की अध्यक्षता फीजी में भारत के उच्चायुक्त श्री गीतेश शर्मा ने की ।

इस अवसर पर बोलते हुए भारत के हाई कमिश्नर श्री गीतेश शर्मा ने अंग्रेजी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के अध्य्यन के लाभों की चर्चा की ।   उन्होंने कहा कि इससे संपूर्ण व्यक्तित्व विकसित करने में सहायता मिलती है। उन्होंने एक रोचक कहानी के माध्यम से मातृभाषा के महत्व को रेखांकित किया।

कार्यक्रम में बोलते हुए श्री नेमानी
कार्यक्रम का विशेष आकर्षण काईबीती समाज के सदस्यों की भागीदारी थी। प्रसिद्ध मीडिया व्यक्तित्व और हिंदी के विदवान श्री नेमानी ने इस अवसर पर अपनी हिंदी यात्रा के बारे में जानकारी दी। उन्होंने यह यात्रा बा के खालसा कालेज से शुरू की थी , जहां के प्रिसिंपल श्री जोगिंदर सिंह कँवल हिंदी के प्रमुख लेखक थे । वहां उनके अध्यापक हिंदी के प्रति समर्पित  श्री रहमत अली थे। यहां उन्होने कँवल जी उपन्यास ‘सवेरा’ पढ़ा जिससे वे बहुत प्रभावित हुए। उनकी हिंदी यात्रा को बहुत बल मिला जब उन्हें युनिवर्सटी ऑफ साउथ पैसिफिक में विवेकानंद शर्मा से पढ़ने का मौका मिला। यहां उन्होंने निर्मला, मृगनयनी और हिंदी साहित्य की अनेक महत्वपूर्ण कृतियां पढ़ीं। उन्होंने कहा कि फीजी काईबीती समाज को भारतीय समाज को जानने के लिए हिंदी का अवश्य अध्य्यन करना चाहिए। उन्होंने कहा  कि एक - दूसरे की भाषाएं जानने स ेसमुदायों की गलतफहमियां और पूर्वाग्रह कम होते हैं और समुदाय निकट आते हैं।



 इस अवसर पर प्रसिद्ध गायक जिमी सुभयदास ने इ-ताऊकेई और हिंदी में गीत गाकर समा बांध दिया। 





दो काइबीती छात्राओँ ने हिदी अध्य्यन के लाभ पर अपना भाषण प्रस्तुत किया। 

भारत गए फीजी के प्रतिनिधिमंडल ने स्लाइड द्वारा अपनी भारत यात्रा के यादों को दर्शकों के सामने रखा। भारत की प्रमुख संस्थाओं  में प्राप्त स्वागत और अभिनंदन के और ऐतिहासिक और धार्मिक स्थनों के पर्यटन ने इस यात्रा को अविस्मरणीय बना दिया। इस अवसर पर बोलते हुए शांतिदूत की संपादिका श्रीमती नीलम ने भारत सरकार और भारतीय हाई कमीशन के प्रति अपना आभार प्रकट किया और भारत और हिंदी के लिए निरंतर काम करने का संकल्प दोहराया। युनिवर्सटी ऑफ साउथ पैसिफिक की श्रीमती इंदु चंद्रा ने उच्च स्तर पर हिंदी पढ़ाने में आने वाली समस्याओं की चर्चा की। 

सुश्री श्वेता ने भारत यात्रा पर लिखी दिल छूने वाली कविता ‘ यह भी मेरे घर की धरती, वह भी मेरे घर की धरती ‘ सुनाई । 

 कार्यक्रम में प्रतिनिधिमंडल के सबसे वरिष्ठ सदस्य श्री दीवानचंद महाराज और प्रतिनिधिमंडल के नेता श्री रमेश चंद का  पुष्पगुच्छ से स्वागत किया गया । 

कार्यक्रम के अंत  में हिंदी प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों द्वारा भारत के हाई कमीशनर को आभार स्वरूप एक भेंट दी गई । हाई कमीश्नर महोदय द्वारा कार्यक्रम में भाग लेनेे वाली छात्राओं को उपहार दिए। 


कार्यक्रम में स्वागत और धन्यवाद भारत के हाईकमीशन में कार्यरत अनिल शर्मा , द्वितीय सचिव, हिंदी व संस्कृति द्वारा दिया गया।  उन्होंने भारतीय सांस्कृतिक केंद्र और एल.आई.सी.आई का विशेष आभार व्यक्त किया।

Sunday 18 October 2015

फीजी यात्रा आधी रात से आगे

  साभार  http://pustak.org/सत्या श्रीवास्तव


<<खरीदें

<<आपका कार्ट
मूल्य4.95  
प्रकाशकनेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया
आईएसबीएन978-81-237-4546
प्रकाशितजनवरी ०१, २००७
पुस्तक क्रं:5117
मुखपृष्ठ:अजिल्द

सारांश:

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

19वीं सदी के आखिरी व 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में पूर्वी उत्तर प्रदेश के आचंलिक क्षेत्रों में हजारों लोग रोजी-रोटी की तलाश में सात समुंदर पार गए। ये लोग ‘गिरमिटिया’ यानी अनुबंधित श्रमिक के तौर पर वहाँ गए थे। लंबी समुद्री यात्रा में कई लोगों को अपने प्राण गंवाने पड़े। जी तोड़ मेहनत के साथ पराए देश के लोक-संस्कार, आचार-व्यवहार में स्वयं को जैसे-तैसे ढालकर इन लोगों ने उन वीरान द्वीपों को आबाद कर दिया। फिर वे वहीं के हो गए। डेढ़ सौ साल से अधिक हो गए, फीजी उनका घर तो बन गया, लेकिन वे अभी भी अपनी मातृभूमि भारत को ही मानते हैं।

इस पुस्तक में ऐसे ही लोगों के अनुभवों-यादों को संकलित किया गया है। किसी स्थान को अपना घर कहने के लिए कोई किसी स्थान पर कितनी पीढ़ियों तक रहे ? फीजी में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों को अभी भी विदेशी, जड़विहीन और असहाय समझे जाने की वेदना को उभारती इस पुस्तक के फीजी के इतिहास, संस्कृति और लोकजीवन पर भारतीय प्रभाव को दर्शाया गया है।
आत्मजीवनचरित की शैली में लिखी गई यह पुस्तक महज फीजी से जुड़े संस्मरणों का पुलिंदा नहीं है, अपितु यह विभिन्न राष्ट्रों की सामाजिक, राजनैतिक, एव सांस्कृतिक परिस्थितियों का विश्लेषणात्मक दस्तावेज भी है।

लेखक प्रो. ब्रिज वी लाल का जन्म फीजी में ही हुआ। उनके पूर्वज गिरमिटिया के रूप में भारत से यहाँ आए थे। वे आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी, केनबेरा में एशिया व प्रशांत क्षेत्र के इतिहास विषय के प्राध्यापक हैं। वे उन गिने-चुने लोगों में हैं, जिन्होंने फीजी के इतिहास पर काम किया है। लेखक ब्रिज वी. लाल की अन्य पुस्तकें हैं-‘मिस्टर तुलसीज स्टोर : ए फीजीयन जरनी’, ‘चलो जहाजी : आन ए जरनी थ्रू नडेनचुअर इन फीजी’, ‘गिरमिटिया : द ओरीजन आफ द फीजी इंडियंस’, ‘ब्रोकन वेब्स : ए हिस्ट्री आफ फीजी आईसलैंड इन द ट्वेन्टीएथ सेंचुरी।’
अनुवादिका डॉ. सत्या श्रीवास्तव महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय लखनऊ में इतिहास विभाग की विभागाध्यक्ष हैं। उन्होंने फीजी में प्रवासी भारतीय महिलाओं की सामाजिक आर्थिक स्थिति पर शोध कार्य किया है।

सम्मतियां


‘‘गिरमिटिया एक कल्पनाशील और बहुमूल्य योगदान है...उम्मीद की जाती है कि यह पुस्तक अन्य औपनिवेशिक अनुबंध श्रमिकों पर शोध के लिए आदर्श मानदंड के रूप में स्वीकार की जाएगी।’’
‘गिरमिटया : द ओरीजीन आफ द फीजी इंडियंस’ पुस्तक पर जर्नल आफ पैसिफिक हिस्ट्री
‘‘20वीं सदी का महान इतिहास....इसकी सबसे बड़ी विशेषता यही है कि इसमें फीजी के इतिहास के आधुनिक और अत्यधिक जटिल व बहुफलकीय पक्षों को एक साथ प्रस्तुत किया है।’’
‘ब्रोकन वेब्स’ पर द कंटेंपररी पैसिफिक : ए जर्नल आफ आईसलैंड अफेयर्स
‘‘विभिन्न जातीय समुदायों पर समृद्ध और मनोरंजक संकलन फीजी में विभिन्न जातियों के सामंजस्य पर-भारतीय फीजी साहित्य को बहुमूल्य योगदान।’’
‘मिस्टर तुलसीज स्टोर’ पर एंड्रयूज अरनो, नृशास्त्री यूनिवर्सिटी आफ हवाई

भूमिका


वर्तमान भारतीय शब्दावली का एक नया और सशक्त शब्द-‘डायस्पोरा’ है। तेज़ी से बढ़ते और विश्वस्तर पर अपनी छाप छोड़ते, भारतीय प्रवासी समुदाय को, भारतीय सरकारों, द्वारा, पहले से कहीं अधिक लुभाया जा रहा है। वार्षिक ‘प्रवासी भारतीय दिवस’-वाणिज्य और व्यापार में, रचनात्मक कलाओं और साहित्य में, सार्वजनिक सेवाओं और छात्रवृत्तियों में व खेलों में, प्रवासियों की उपलब्धियों का उत्सव मनाता है। अनिवासी भारतीयों के मामलों की देखरेख के लिए एक राज्य मंत्री को भी नियुक्त किया गया है। प्रवासी भारतीय भले ही पूर्वजों की संस्कृति के सांझे भागीदार हैं परंतु वे किसी भी तरह से एक समरूप समूह नहीं हैं। वे, शताब्दियों के भटकाव के, परिणाम हैं। उनके ऐतिहासिक अनुभवों, उनके सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोणों और भारत से तथा सभी भारतीयों के प्रति उनकी घनिष्ठता में, विभिन्नता, दृष्टिगोचर होती है।

एक-दूसरे से जुड़े हुए निबंधों का यह संग्रह, एक भिन्न प्रवासी संप्रदाय, फीजी-भारतीय जो, उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दियों में, शर्तबंध मज़दूरी के परिणामस्वरूप उभर कर सामने आए, के अनुभवों का संकलन है। फीजी के भारतीय शर्तबंध प्रवासी, उन लाखों भारतीयों की तरह थे जिन्हें अफ्रीका, हिंद तथा प्रशांत महासागर तथा कैरिबियन ‘किंग शुगर कॉलोनी’ में भेजा गया। गिरमिट या समझौते, जिसके अन्तर्गत वे गए थे, समाप्त हो गया और कुछ वापस आ गए, परंतु अधिकांश, जड़त्व के कारण, और भारत लौटने के लिए एक लंबी कठिनाईयुक्त यात्रा करने की अनिच्छा से, या नये अवसरों और नई स्वतंत्रताओं से प्रेरित होकर, अपने नये प्रवासों में ही बस गए। विषम और अधिकांशतः क्रूर परिस्थितियों में निचोड़े गए उनके श्रम ने, तृतीय विश्व के अनेक राष्ट्रों की आर्थिक व्यवस्था को सुधारा है।

शर्तबंध मजदूरी के अनुभवों के बारे में अधिकांशतः प्रवासियों के उत्तराधिकारियों द्वारा ही, बहुत कुछ लिखा गया है। सहानुभूति, समझ और कल्पना से युक्त, इनकी रचनाओं ने, गिरमिटियाओं को, जो एक समय में किसी छोटे ईश्वर की सौतेली सन्तान कहलाते थे, आवाज़, शक्ति और मनुष्यत्व प्रदान किया है। इन रचनाओं ने, उनके शर्तबंध अनुभवों को आधुनिक हिस्टोरियोंग्राफी अप्रत्यक्ष और निंदनीय सीमाओं से, सुरक्षित बचा लिया है। इस संग्रह में, मैंने अपने लोगों के-फीजी भारतीयों के कुछ गहन, जीवंत उदाहरणों को प्रस्तुत किया है-उनके डर और आशाएं, उनकी रीति-रिवाज़ जिनका पालन, वे संप्रदाय को बनाए रखने हेतु और उसे उद्देश्य देने के दृष्टिकोण से करते रहे थे, कैसे वे, जीवन का उत्सव और उसके समाप्त होने का दुःख मनाते थे और कैसे भाग्य द्वारा खेली गई क्रूर बाज़ी को उन्होंने अपने हित में करने का प्रयास किया। कहने के लिए क्या कहानी है !

यह एक ऐसा संप्रदाय था, जो अपने दासत्व के सायों से बचने का प्रयास कर रहा था, अपनी सांस्कृतिक जड़ों से दूर, प्रतिकूल वातावरण में फंसा, अपनी सीमाओं में जीवनयापन का प्रयास करता हुआ, बिना सहायता अपने दम से नयी शुरुआत करता हुआ। इन गिरमिटियाओं ने, कटुता और एक प्रतिकूल वातावरण में हस्तान्तरण के बावजूद समय के साथ एक सुगठित और संबद्ध संप्रदाय निर्मित किया। इन लोगों ने, जिनकी शुरुआत ही, ‘कुछ नहीं’ से हुई थी, एक पीढ़ी के मध्य ही कितना कुछ पा लिया। कठिन से कठिन एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में मानवीय आत्मा की विजय, एक ऐसी विरासत है जो गिरमिटिया हमारे लिए छोड़ गए हैं।

अलिखित अतीत को शब्दबद्ध करना, जबकि स्मृतियों को भलीभांति संजोया नहीं गया हो और जिसके लिखित दस्तावेज़ भी उपलब्ध न हों, एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। इतिहास मेरा विषय रहा है, पर जो इतिहास मैं जानता हूँ वह स्कूल और विश्वविद्यालय में पढ़े हुए इतिहास से भिन्न है। उस समय जोर रटने पर था, ताकि परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ जा सके। सही इतिहास को जानना आवश्यक नहीं था। पढ़ाया हुआ इतिहास लिखित दस्तावेजों में से ही लिया जाता। सत्य अपने को स्वतः बयान करता है। आज जो इतिहास, मैं पढ़ता और लिखता हूं, वह अलग है। मैं, इस विचार में सुखी हूं कि ज्ञान प्रायोगिक और आंशिक, दोनों है। और मैं यही स्वीकार करता हूं कि जो दोहरे विरोध, एक समय में परमपावन समझे जाते थे और पूरे तौर पर स्थापित समझे जाते थे, वास्तव में छिद्रिल और समस्यायुक्त हैं। मैं, यह भी मानने लगा हूं कि परमाणात अध्ययन की अपेक्षा रचनात्मक साहित्य अनुभव की सच्चाई को कभी-कभी अधिक सही रूप में पकड़ता है। जीवन के अनुभूत सत्य को, मैं, अर्ध-कल्पित साधनों द्वारा समझाने का प्रयास करता हूं। मैं, इसे प्रयोगात्मक कथा साहित्य कहता हूं।

इतिहास को रचनात्मक तरीके से, बिना फुटनोटों के, लिखने का विचार मुझे तब आया, जब एक वर्ष के लिए 1970 के दशक के अंतिम वर्षों में, मैं, अपने डॉक्टोरल थीसिस के लिए तथ्य संग्रहीत करने हेतु भारत आया था। मेरा शोध कार्य फीजी के शर्तबंध भारतीयों की पृष्ठभूमि का अध्ययन था। लगभग, छः महीनों के लिए, मैं उत्तरपूर्व भारत के एक ग्रामीण, अशक्त क्षेत्र में रहा जहां से शर्तबंध मजदूर आए थे। यहीं से मेरे दादा-दादी भी आए थे। मैंने धुएं से भरे ढाबों में, चिकनाईयुक्त खाना खाया, मिट्टी के कुल्हड़ों मैं चाय पी, खटमल से भरे बिस्तरों पर सोया, जर्जर बसों में यात्रा की और टूटी-फूटी ‘फॉरेन’ हिंदी में बातचीत की। मैंने शीघ्र ही खोज लिया कि भारत, फील्ड वर्क के लिए, न तो मात्र एक स्थान है और न मात्र एक देश है। फीजी में हम उसकी पौराणिक कथाओं और दन्तकथाओं उसके लोकप्रिय धार्मिक ग्रन्थों, उसके कुछ अधिक ही मिठास भरे हिंदी गानों और फिल्मों के साथ बड़े हुए थे। हमारे छप्पर छाये घरों की बांस की दीवालों पर प्रसिद्ध फिल्मी सितारों की तस्वीरें भरी रहतीं (देवानंद, दिलीप कुमार, राज कपूर, नर्गिस, वहीदा रहमान) और साथ ही कई रंगों वाली देवी-देवताओं की तस्वीरें भी। अपने दादा-दादी की भूमि को देखने जाना मेरे लिए एक अत्यधिक तीव्र और भावनात्मक रूप से झकझोर देने वाला अनुभव था।

मुझे लगा कि जिस अनुभव ने मेरे अतःकरण तक को हिला दिया है और मुझे अपने अस्तित्व से संबंधित प्रश्न पूछने लिए विवश कर दिया है उसे समझना नितान्त आवश्यक है। उस व्यक्तिगत खोज से ही मेरे पहले प्रयास ने जन्म लिया और मैं उन शक्तियों के समायोजन को समझने का प्रयत्न करने लगा। जिन्होंने मुझे गढ़ा है। परंपरागत अध्ययन इस कार्य में अधिक सहायक नहीं हुआ। प्रेरित होकर, अपने खाली क्षणों में, मैं अपने अलिखित अतीत का फिर से अध्ययन करने लगा। इस पुस्तक में संग्रहीत निबंध इन्हीं प्रयासों का प्रतिफल हैं।

यह मेरा सौभाग्य है कि शर्तबंध उत्प्रवास के सभी गंतव्यों पर मुझे जाने का अवसर मिला है : ट्रिनीडाड, गुआयना, सूरीनाम, मॉरिशस, और दक्षिणी अफ्रीका वर्षों से किए गए अपने वार्तालापों और शोध से, मैं, इस परिणाम पर पहुंचा हूं कि कुछ विशिष्ट बातों के विवरण अलग हो सकते हैं परंतु जो मैंने स्मृति के आधार पर कहा है उसकी प्रतिछाया, विश्वयुद्ध के उत्तरार्ध की पीढ़ी में, शर्तबंध, प्रवासियों के अन्य संप्रदायों में भी दृष्टिगोचर होती है। मेरी इस यात्रा में वे अपने व्यक्तिगत क्षणों की सूचक पहचान सकते हैं, अपने ही पदचापों की प्रतिध्वनि सुन सकते हैं। कम से कम, यह आशा तो कर सकता हूं। मैं, यह भी आशा करता हूं कि भारत के पाठक, ऐसे लोगों के दूरस्थ संप्रदाय; जिसने उप-महाद्वीप से बड़ी विषम परिस्थितयों में उत्प्रवास किया और जिनकी राजनैतिक दशा ने, हाल ही के वर्षों में, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मुख्य समाचार निर्मित किए, की विपदापूर्ण गाथा में कुछ रुचिकर और जिज्ञासापूर्ण तथ्य पाएंगे।

मैं गौरवान्वित हूं कि नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, यह पुस्तक प्रकाशित कर रहा है। इस सौभाग्य के लिए डॉ. ज्ञानेश कुदेसिया का आभारी हूं जिन्होंने प्रकाशन हेतु, सर्वप्रथम विचार दिया, और ट्रस्ट के प्रोफेसर बिपिन चंद्रा, जिन्होंने इसका स्वागत किया। मैं, इयान टेम्पिलमैन का भी आभारी हूं जिन्होंने कुछ सम्पादकीय संशोधनों के सहित इन निबंधों को छापने की अनुमति दी। ये निबंध सबसे पहले उन्हीं के प्रेस, पेन्डानस बुक्स, द्वारा प्रकाशित हुए थे-मिस्टर तुलसी का स्टोर: ए फीजियन जर्नी, और बिटर स्वीट : द इण्डो-फीजियन एक्सपीरियन्स’। इयान, सदैव एक मित्र और एक परामर्श दाता रहे हैं। साथ ही, मैं अपने उन सभी मित्रों और परिवारजनों का आभारी हूं जिन्होंने मेरे अकादमिक और लेखकीय जीवन में हमेशा सहयोग और प्रेरणा दी है और जिनके नामों से एक छोटी-सी टेलीफोन पुस्तिका भरी जा सकती है।
विनाका वाका लेवू, धन्यवाद,

ब्रिज वी. लाल, कैनबेरा

जड़े और रास्ते


जहां प्रेम है वहीं हमारी जड़ें हैं,
हम लौटते हैं, उन जगहों पर
जहां यादें हैं,
बंधनों एवं स्थायित्व तथा प्रेम की।

प्रेम माथुर
(हिंदी रूपांतर)

भारतीय शर्तबंध मज़दूरों का पहला प्रेषण 1879 में फीजी गया था। तब फीजी को इंग्लैंड का उपनिवेश बने केवल पांच वर्ष ही बीते थे। सर आर्थर गॉर्डन, फीजी के पहले गर्वनर ने भारत की ओर रुख किया क्योंकि उन्होंने फीजी श्रम का प्रयोग निषेध घोषित कर दिया था। उन्होंने देशी संप्रदाय को व्यावसायिक रोज़गार के बुरे प्रभावों से बचाने के लिए, ऐसा किया था। फीजी उपनिवेश, उस समय निर्धन बाग़ान मालिकों और असहिष्णु विधियों का भण्डार था। साथ ही पड़ोसी प्रशांत महासागर के द्वीपों से श्रमिकों की उपलब्धि अस्थिर और तथाकथित रूप से खून में रंगी रहती थी। फीजी आने से पहले, गॉर्डन, ट्रिनीडाड और मॉरिशस के गवर्नर रह चुके थे। इसलिए उनके शर्तबंध मज़दूरी का संपूर्ण ज्ञान था क्योंकि यह व्यवस्था 1837 से लागू हो चुकी थी। परिणामस्वरूप, गवर्नर ने उस उपनिवेश को, जो ब्रिटेन ने बड़ी ना नुकुर के बाद अपनाया था, पुनर्जीवित करने के लिए भारत और शर्तबंध मज़दूरी की प्रथा का सहारा लिया। ब्रिटेन चाहता था की फीजी में आर्थिक आत्मनिर्भरता जल्द से जल्द स्थापित हो।

‘लियोनिडास’, की पहली सामुद्रिक यात्रा और सतलज पंचम की 1916 में हुई आखिरी यात्रा के बीच में 87 जहाज़, जो मानव नौभार को ढोने के लिए विशेष रूप से निर्मित किए गए थे, ने कठिन परिस्थितियों में, अनन्त लंबी यात्राओं द्वारा, 60,000 पुरुष, स्त्री और बच्चों को कलकत्ता और मद्रास, से फीजी पहुंचाया। महानदियों एवं पौराणिक व्यक्तित्वों पर आधारित जहाज़ों के नाम बड़े आकर्षक और जादुई प्रतीत होते थे-डैन्यूब, एल्ब, गैन्जिस, जमुना, राईन, एवॉन, सिरिया, पेरिकिल्स, लियोनिडास, क्लाईड, इण्डस मेन, मॉय, मेरसी, विरावा। आश्चर्य की बात यह है कि केवल एक जहाज़ ‘सिरिया’, 1884 में लापरवाह नौ संचालन के कारण, सूवा के समीप, नासिलाई की समुद्री चट्टानों से टकरा कर दुर्घटनाग्रस्त हुआ था। इस हादसे में 59 जानें गईं थीं।

तीन महीनों की लंबी जहाज़ी यात्रा और एक माह की भाप के जहाज की यात्रा, कई स्थायी जीवन शैलियों और पुरानी आदतों को तोड़ने में सफल हुई। प्राचीन भारतीय ग्रामीण प्रथाओं और रीतियों का अन्त हुआ। कालापानी को पार करने वाली समुद्री यात्राओं ने सामाजिक अनुक्रम को समतल करने में मदद की और सांस्कृतिक नयाचार का विध्वंस किया। परंतु विध्वंसता की प्रक्रिया में सृजनता के भी बीज छुपे थे। समान भाग्य और समान लक्ष्यों से, नये रिश्ते कायम हुए। इन सब में ‘जहाज़ी भाई’ का रिश्ता भावनात्मक रुप से सर्वाधिक शक्तिशाली था। यह रिश्ता खून के रिश्ते की तरह प्रगाढ़ और सुख प्रदान करने वाला था। इस रिश्ते को, लोग अपने जीवन के संध्याकाल में भी संजोये रहे। यह आपसी संबंध, अजनबी बाहरी दुनिया की अस्तव्यस्तता और जटिलता के बावजूद एकता का सूचक बना रहा।

अंत में लगभग 24,000 शर्तबंध मजदूर और उनके परिवार जिनमें से कुछ फीजी में ही जन्मे थे), भारत वापस चले गए। परंतु अधिकांश लोग रुक गए। उनमें से कई तो वापस जाने की बात, अपनी वृद्धावस्था तक करते रहे। परंतु जैसे-जैसे अतीत की यादें धूमिल होती चली गईं और नये जीवन की सच्चाइयां उनका स्थान लेती गईं, वैसे-वैसे निर्णय का दिन टलता चला गया और फिर कभी नहीं आया।

नया जीवन परेशानियों से युक्त था। पूर्वजों के ज्ञान को नई परिस्थितियों के हिसाब से ढालना था। नये व्यवहारिक, अन्तजीतीय संबंध स्थापित किए जाने थे। एक नये भूगोल को समझना था, एक नये शब्दकोष का ज्ञान अर्जित करना था। यह सब गिरमिटिया और उनके उत्तराधिकारियों ने कुछ प्रतिस्कंदन और कुछ आत्मसमर्पण की नीति अपनाते हुए किया।
बीतते समय के साथ उन्होंने फीजी अर्थव्यवस्था की नींव डाली। हरे गन्ने के लहरदार खेतों में अनपढ़, अंगूठा छाप, ही दृष्टिगोचर होते थे-अधिकांश रूप से बंजर भूमि पर, जिसे पहले कभी जोता नहीं गया था। रीवा और नावुआ के नमी से भरे धान के खेतों में वही गिरमिटिया दिखते, गन्ना क्षेत्रों में धीरे-धीरे उभरते बाज़ार-शहरों में, जो बाद में बड़े शहर बने, उनमें, हम उन्हीं को पाते, अगुआ प्राथमिक और सेकन्ड्री स्कूलों में, जो बाद में विशिष्ट स्कूलों में परिवर्तित हुए, में भी वही दिखते, गांवों से निकलती स्कूली बच्चों की अविरल धारा जो ग्रामों को छोड़ कर उन्हें ऐसे व्यवसायों की ओर ले गई जिसके बारे में उन गिरमिटिया बच्चों के माता-पिता सपने में भी सोच नहीं सकते थे, में भी वही दिखाई देते थे।

फीजी से मेरा सीधा संपर्क 1908 से आरंभ हुआ था। उस साल मेरे दादा (आजा), गिरमिटिया के रूप में, फीजी आए थे। आजा एक मामले में भाग्यशाली थे-वे फीजी में तब आए जब सिगरेट के सबसे बुरे दिन बीत चुके थे-1980 के दशक के वर्षों की, हृदयविदारक शिशु मृत्युदर, निर्धारित घंटों से कहीं अधिक घंटों के लिए श्रमिकों से काम कराने की प्रथा, चीनी बाग़ानों में हुए शारीरिक हिंसा, एक अनिश्चित एवं अत्यधिक असुरक्षित जीवन। 1907 में, फीजी में, 30,920 भारतीय रह रहे थे जिसमें से केवल 11,689 ही शर्तबंध थे। मुक्त या खुले भारतीय 17,204 एकड़ भूमि स्वयं जोत रहे थे। 5,586 एकड़ में गन्ना और 9,347 एकड़ में धान बोया जाता था। भारतीयों के लिए, धीरे-धीरे गन्ना ही प्रमुख उपज बन गयी।1 1911 तक, 40,286 भारतीयों में से 27 प्रतिशत उपनिवेश में ही पैदा हुए थे, और धीरे-धीरे यह संख्या समय के साथ बढ़ती ही चली गई, 1946 के आते-आते भारतीय, जनसंख्या का बहुसंख्यक हिस्सा बन गए और ‘भारतीय प्रभुत्व’ का डर फीजी में व्याप्त होने लगा-वह डर जिसने फीजी की जटिल राजनैतिक वार्ताओं को तब प्रभावित किया जब देश 1960 के दशक में स्वतंत्रता की ओर अग्रसर हो रहा था। (फीजी को 1970 में स्वतंत्रता प्राप्त हुई)।

छुटपन में हमने आजा और उनके अन्य, भूरे रंग के धोती पहने गिरमिटियाओं से गिरमिट की कहानियां सुनीं थीं-उषा की पहली किरण के साथ ही जान लेवा काम का शुरू होना, अच्छे बुरे ओवरसियर, खचाखच भरी हुई एस्टेट लाइनों में पारिवारिक ज़िंदगी की असीमित कठिनाइयां, सांस्कृतिक बिखराव और अतिक्रमण जो बाग़ानों की जिंदगी का हिस्सा था और अपनी दुर्दशा का अर्थ निकालने के उनके प्रयास भी। मैंने यह कहानियां विश्वविद्यालय में, शर्तबंध मज़दूरी की पुस्तकों को पढ़ने से बहुत पहले सुनीं थीं। इन किताबों ने हमारी कल्पना शक्ति को प्रभावित किया था, विशेषतौर पर ह्यू टिंकर द्वारा लिखित ‘अ न्यू सिस्टम ऑफ स्लेवरी’ ने।2 मैंने विश्वविद्यालय के स्नातकपूर्वक अध्ययन के आख़िरी वर्ष में इसे पढ़ा था। शर्तबंध मज़दूर निर्धन, ग्रामीण पृष्ठभूमि से आए भोले-भाले लोग थे, जिन्हें धोखेबाज़ ‘आरकतियों’ ने प्रवसन करने हेतु फंसा लिया था। बाग़ानों की कठोर कार्य प्रणाली ने उन्हें एक क्रूर अनुभव दिया-पर उनकी परेशानियों की कहीं सुनवाई नहीं थी, ओवरसियरों और सरदारों द्वारा उनकी औरतों पर जुल्म होते, उनके परिवार टूटकर इधर-उधर बिखर जाते, उनकी ‘इज़्ज़त’ की धज्जियां उड़ा दी जाती।
मेरे लिए, गिरमिट की इस व्याख्या को 1979, में हुए भारतीयों के फीजी आगमन

--------------------------------
1. जे. डब्ल्यू. कोल्टर, द ड्रामा ऑफ फीजी : ए कॉन्टेमपोरेरी हिस्ट्री (रटलैण्ड, वर्मोण्ट, 1967) पृ.सं. 90-91
2. ह्यू टिंकर, ए न्यू सिस्टम ऑफ स्लेवरी : द एक्सपोर्ट ऑफ इण्डियन इन्डेनचर्ड लेबर अब्रॉड, 1834-1920 (लंदन, 1974)।
---------------------------------------

के शताब्दी समारोह ने और सुदृढ़ कर दिया। तब मैं ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनीवर्सिटी में स्नातक कक्षा का छात्र था। मानी हुई बात है कि, उस समय, अधिकांश वातावरण बोझिल ही था। तब तक ‘गिरमिट’ शब्द फीजी के सामान्य भारतीय प्रवासियों के शब्दकोष का महत्त्वपूर्ण हिस्सा नहीं बना था। अधिकांश लोगों के लिए यह शब्द शर्मिदग़ी और गुलामी से जुड़ा था-ऐसे इतिहास से जुड़ा था जिसे भूलना ही बेहतर था। समारोह ने इस शब्द में एक नयी जान फूंकी और लोगों ने एक ऐसे अतीत के बारे में अध्ययन करने का प्रयास किया जो अनुमान पर अधिक, तथ्यों पर कम आधारित था। उस अतीत को वर्तमान कठिनाइयों के चश्मे से देखा गया-ऐसा वर्तमान, जिसमें फीजी-भारतीय, जाति संबंधित राजनीति के कारण, सार्वजनिक जीवन की मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ गए थे।

इतिहास की पश्चदृष्टि से अवलोकन किया रहा था। परिणामस्वरूप एक जटिल और विवादास्पद इतिहास का जन्म हुआ जिसने भारतीयों को इतिहास के शिकार के रूप में दर्शाया। उनकी न कोई अपनी आवाज़ थी न कोई अपनी शक्ति। ‘चाबुक़ और बेड़ियो’ की कहानी, आज भी, गिरमिट से संबंधित सार्वजनिक भाषणों और चिन्तन का प्रभावशाली हिस्सा है, यद्यपि शर्तबंध मज़दूर की आवश्यकता पर आधुनिक इतिहास लेखन, प्रश्नचिह्न लगाता है।3 शर्तबंध मज़दूरी गुलामी का दूसरा नाम था-इसमें कोई शक नहीं है। अत्याधिक काम ने कई गिरमिटियाओं की कमर तोड़ दी, बीमारियों ने उनकी जीवन लीला समाप्त की, मानवहिंसा और लोभ ने भी उनके जीवन को तहस-नहस कर दिया। दुःख और शर्तबंध मज़दूरी का एक अभिन्न अंग था। पर यह पूरी कहानी नहीं है। कठिनाइयां तो थीं परंतु यह भी सच है कि गिरमिटियाओं को अपने भाग्य निर्धारण का अधिकार भी प्राप्त हो गया था। 

Thursday 15 October 2015

मुझे भाषा से इश्क है- जोगिंदर सिंह कँवल - अनिल शर्मा



अपने कंप्यूटर पर काम करते श्री जोगिंदर सिंह कँवल साथ खड़े हैं, सरोज शर्मा, अनिल शर्मा, मेज के पीछे श्रीमती इंदु चंद्रा, श्रीमती श्यामला, श्रीमत रोहिणी लता


जोगिंदर सिह कँवल फीजी में हिंदी लेखन के भीष्म पितामह हैँ। 88 वर्ष की आयु में  चहल - पहल , महत्वाकांक्षाओं से दूर , बा की पहाड़ियों में साहित्य  साधना में रत हैं। जीवन के इस लंबी दौड़ -धूप और यात्रा मे उन्होंने अपनी मुस्कान नहीं खोयी है, साहित्यकारों को सामान्य रूप से मिलने वाली सांसारिक असफलताओं के कारण उनमें कोई  कटुता नहीं आई , उदासीनता और निराशा तो उनसे कोसों दूर है। बात - बात पर ठहाके अपनी कवियत्री पत्नी अमरजीत कौर के साथ वे निरंतर जीवन और भाषा के सत्यों का अन्वेषण कर रहे हैं। हिंदी के 4  उपन्यास,  3   काव्यसंग्रह , फीजी के हिंदी लेखकों की कविताओं , कहानियों  और निबंधों के संग्रह, अपना कहानी संग्रह, अंग्रेजी में एक उपन्यास याने वे पिछले 40 सालों से लगातर लिख रहे हैं ।  उनसे मिलकर मुझे  हिंदी के लेखक विष्णु प्रभाकर , रामदरश मिश्र और प्रभाकर श्रोत्रिय की याद आती है। जिनकी कलम को उम्र की आंच ने गला नहीं दिया बल्कि जिन्होंने अनुभवोे के प्रकाश में दुनिया को और बारीकी से देखा , उसकी सुंदरताओ और पल-पल परिवर्तन के स्वभाव को समझा , जमीन की खुशबू को महसूस किया और क्षितिज के उस पार के अबूझे भविष्य को जन- जन के सामने प्रस्तुत किया। उनका पहली पुस्तक 'मेरा देश मेरी धरती' 1974 मेें प्रकाशित हुई थी। तब से अब तक याने  40 वर्ष से वे निरंतर साधनारत हैं। इतिहास को खंगालते हुए, इतिहास के निर्जीव तथ्यों में अपनी रचनात्मकता से प्राण फूंक कर जीवंत , खिलंदड़ी कहानियों, कविताओं, उपन्यासों को सृजित करते हुए …..

 फीजी में आने के कुछ दिनोंं के बाद मेरी कँवल जी से फोन पर बात हुई , जब आप किसी वरिष्ठ लेखक से बात करते हैं तो आमतौर पर पाते हैं कि वह अपनी वरिष्ठता याने आयु और ज्ञान के बोझ से दबा होता है या आपको दबाना चाहता है। उम्र उसे तल्ख बना देती है । वो आसमान में बादलो को इतनी बार आते - जाते देख चुका होता है कि  बरसात की संभावना उसमें उत्साह पैदा नही करती । पर ये तो अलग थे । खुशमिजाज , हर बात  में सकारात्मकता देखने वाले , सबको प्रोत्साहित करने वाले, आशावादी । लाटुका में ( फीजी के पश्चिमी क्षेत्र) में अध्यापकों की  एक कार्यशाला  18 सितंबर को थी। मैं राजधानी सुवा ( मध्य क्षेत्र )से लाटुका गया तो कँवल जी के घर जाने का कार्यक्रम बनाया ।  मेरे साथ पत्नी सरोज शर्मा, युनिवर्सटी ऑफ साउथ पैसिफीक की श्रीमती इंदु चन्द्रा और शिक्षा विभाग के अधिकारी थे। लाटुका से बा का रास्ता बहुत सुंदर है । चारो और पहाड़ , गन्ने के खेत और हरियाली । यहां सुवा ( फीजी की राजधानी) की तरह निरंतर बरसात नहीं होती रहती । अगर आपको बताया जाए कि यहां बहुत बार सूखा रहता है तो आप आश्चर्य करेंगे कि समुद्र  के इतनी पास और सूखा। कँवल जी के उपन्यास सवेरा' में इस बात का जिक्र आता है कि सूखा होने पर अंग्रेजो के  अत्याचार बढ़ जाते थे। बा के रास्ते में चौराहे पर मूर्तियां बनी हुई हैं जहां अंग्रेजों को  किसानो को कोड़े मारते हुए  गन्ने के खेतोें में काम करवाते हुए दिखाया गया है।  बा पहुंचे तो देखा कंवल जी का घर हिल व्यू पर है। कुछ भटकाव के बाद पहुंचे तो कंवल जी की प्रसन्नता का पारावार नहीं था । उन्होंने और उनकी कवियत्री पत्नी अमरजीत ने स्वागत की पूरी तैयारी कर रखी थी। खीर और पंजाबी पकोड़े । खीर खिलाने के साथ ही कँवल जी ने अमीर खुसरो की खीर संबंधी पंक्तियां सुना दी। माहौल खुशगवार हो गया था।  हालचाल पूछने के बाद  कँवल जी से फीजी, साहित्य, यहां का जीवन जीवन शैली के बारे में बात हुई।   नीचे दिए चित्र में-
    श्री जोगिंदर सिंह कंवल व उनकी पत्नी अमरजीत श्रीमती सरोज शर्मा को पुस्तकें भेंट करते हुए





बातचीत शुरू हुई और मैंने पूछा- कब लिखना शुरू किया । जवाब मे वही खिलंदड़ापन और विनम्रता । मैं लिखता - विखता कहा हूंं। मुझे तो भाषा से इश्क है। फिर कहते हैं सुनो पहली कविता अमरजीत ( पत्नी)  के बारे में लिखी थी-
 मैं बेड़े दा माली , तू गलियां दी रानी ,
वाह वाह फेंका सदरां दा पानी,
 रही युगां तू दबी मेरी प्रीत कंबारी,
  मेरी कविता बन गयी ,
 तेरी अलख जवानी -
 अमरजीत जी मजाक में कहती हैं , मै तो तब तक आपको मिली नहीं थी , ये कविता किसी और पर लिखी होगी। कँवल जी के प्रिय लेखकों मे अमृता प्रीतम, फैज़ अहमद फैज़  रहे हैं।  फीजी के वरिष्ठ
 साहित्यकार कमला प्रसाद मिश्र उनके प्रिय मित्र थे। उन्होंने  पचास के दशक में  पंजाब में पढ़ाई की थी । वे अर्थशाश्त्र में एम.ए है।  स्कूल में उस समय पंजाबी और उर्दु पढ़ाई जाती थी  । परंतु डी.ए.वी कालेज में पढ़ने के कारण वे हिदी भी पढ़ सके। खालसा कालेज में पढाने  के कारण वे पंजाबी से भी जुड़े रहे । भगवान सिंह जी की प्रेरणा से जब हिंदी में लिखने लगे तो प्रारंभ में मुश्किलें आई। परंतु पत्नी अमरजीत हिंदी की अध्यापिका थी । वे मदद करती । इधर हिदी के पढ़ने वालो की संख्या कम होने के कारण वे अंग्रेजी में लिखने लगे। अपने उपन्यास सवेरा' का अनुवाद ' द मार्निंग' के रूप में किया । नब्बे के दशक में उन्होंने ' द न्यू इमिग्रेंट' उपन्यास लिखा ।  जो प्रवास के कारण नई पीढ़ी के पति -पत्नी में आए मतभेदों को प्रस्तुत करता है।
  लेखन के लिए उन्हें सबसे अधिक प्रेरणा भारत के सत्तर के दशक में उच्चायुक्त रहे भगवान सिंह से मिली । भगवान सिंह फीजी में बहुत लोकप्रिय थे। वे भारतीय हिंदी और संस्कृति के सच्चे पोषक थे।   रेडियो पर हर हफ्ते उनके प्रसारण होते थे जिसे हजारोेंे लोग बड़े चाव से सुनते थे। फीजी आजाद हो चुका था। नया देश और सुनहरा भविष्य सबको दिखाई दे रहा था। गिरमिट के नाम पर भारतीयों पर हुए अत्याचारोें की याद अभी ताजा थी। गिरमिटियों की आखिरी पीढ़ी अभी जीवित थी।   पर उनकी दर्द भरी दास्तान का दस्तावेजीकरण ( documentation ) अभी नहीं हुआ था। भगवान सिह के कहने से कँवल जी में यह प्रेरणा जाग्रत हुई । उन्होंने तोताराम सनाढ्य की किताब ' फीजी में मेरे 21  वर्ष’  पढ़ी। वह रौंगटे खड़े कर देने वाली पुस्तक थी । जो लोग पूछते हैं लिखने का क्या प्रभाव होता है , उन्हें तोताराम सनाढ्य की पुस्तक और  उसके प्रभाव का अध्य्यन करना चाहिए। तोताराम सनाढ्य ने अपने संस्मरण बनारसी दास चतुर्वेदी को सुनाए थे। चतुर्वेदी जी ने उसे पुस्तक का रूप दिया । पुस्तक के प्रकाशन के साथ ही भारत में गिरमिट प्रथा के खिलाफ जबर्दस्त जनमत बन गया  और अंतत :  गिरमिट प्रथा समाप्त हुई । कँवल जी उस दर्द भरे इतिहास को उसके मानवीय परिप्रेक्ष्य  में प्रस्तुत करना चाहते थे।  उन्होंने गिरमिटियों के इतिहास पर रिसर्च करनी शुरू की । इसमें उन्हे सबसे अधिक मदद मिली- आस्ट्रेलिया के लेखक श्री के.एल.गिलियन की किताब से । गिलियन ने इस विषय पर काफी रिसर्च की थे । गिलियन इस संबंध मे रिसर्च करने भारत , इंगलैण्ड और आस्ट्रेलिया भी गए।  कँवल जी बताते हैं कि इस संबंध में उनकी चर्चा फीजी के प्रमुख विद्वानों सुब्रामणि, ब्रजलाल , सत्येन्द्र नंदन, मोहित प्रसाद  से होती रहती थी । लेकिन वे केवल किताबी रिसर्च से संतुष्ट नहीं थे । वे गांवो मे ब्याह - शादी या अन्य समारोहो मे जाते तो पाते कि बड़े - बूढ़े गिरमिट के दिनो की बात कर रहे हैं। और यगोना ( फीजी शराब) पीने के बात तो फिर जो महफिल जमती, तो यादें फीजी की बरसात की तरह  उमड़ आतीँ, थमने का नाम ना लेती । कँवल जी ने वहां से किस्से बटोरने शुरू किए ।  उनका कहना है कि उनका उपन्यास सत्य घटनाओं से भरा है , उन्होंने तो केवल घटनाओं को  एक सूत्र में पिरोने का काम किया है।
सवेरा' उपन्यास मे भारत से फीजी आए भारतीयों की भारत में परिस्थितियां , फीजी लाने मे झुठ- कपट , बेईमानी का हाथअंग्रेजों, कोलम्बरों, सरदारों की कारस्तानियां को प्रस्तुत किया गया है । इसमे निरीह भारतीय मजदूरो के साथ अमानवीय, पशुओं  जैसे बर्ताव का मार्मिक वर्णन है । उन दिनों भारतीयों की कोड़ो और जूतो से पिटना कोई ऐसी घटना नही थी जो कभी एक बार होती थी, बल्कि यह रोज होने वाली घटना थी। घर से हजारों किलोमीटर दूर , समुद्र में बिना माझी की  एक छोटी नाव, लहरों के थपेड़े खाती... , अपनी नियति को झेलती... । उसे पता नहीं कि भारत  में उसका परिवार , बूढ़े माता -पिता  किस हालत मे है, वह कभी मिल पाएंगे अथवा नही ! उसकी मौत  समुद्री जहाज पर होगी या फीजी पहुंचने के बाद ? वह ज्यादा काम करने से मर जाएगा या बीमारी से ? मुहँ खोलने पर उसे जेल मे ठूंस दिया जाएगा या विद्रोह करने पर हत्या कर पेड़ से लटका आत्महत्या का मामला बना दिया जाएगा ? किसी भी महिला की  अस्मिता सुरक्षित नहीं थी । खेतों में काम करती  ये औरतें कभी भी सरदार, ओवरसियर या अंग्रेज अधिकारी का शिकार बन सकती थी। सवेरा' 1880 से शुरू होता है और 1920  में गिरमिट प्रथा की समाप्ति की खबर से समाप्त होता है । इतिहास का यह लोमहर्षक कालखंड जोगेन्द्र सिंह  कँवल ने सवेरा’  उपन्यास  में  बडे़ ही संवेदना और विज़न के साथ दर्ज किया है।
उपन्यास की खास बात हैपात्रों का चरित्र चित्रण और कँवल जी की उदात्त दृष्टि । उपन्यास के दो महिला पात्र जमना और शांति की कहानी भारतीय महिलाओ के त्याग, संघर्ष, प्रेम , समर्पण और अदम्य साहस की कहानी है। जिस- तिस की बुरी नजरों की पात्र बनी भारत की बालविधवा जमना परिस्थतियों का शिकार बन फीजी पहुँच जाती है। पर फीजी में उपन्यास के मुख्य पात्र अमर सिंह से संपर्क में आऩे के बाद उसके जीवन में बड़ा परिवर्तन आता है और वह अपनी जान पर खेलकर अमरसिह की जान बचाती  है और आखिर में पुरूष पात्र जो  चाह कर भी ना कर पाए वह करने का साहस दिखाती है और अत्याचारी अंग्रेज अधिकारी की महिलाओं से ऐसी पिटाई करती और करवाती है कि वह दुष्ट अपमान के चलते  फीजी छोड़कर भाग जाता है। लेखक की दृष्टि इतनी उदात्त है कि छूआछूत में यकीन रखने वााले  पंडित परमात्मा प्रकाश को सद्दबुद्धि देता है और दलित पात्र कर्मचन्द और मुसलमान रहीम की मानवीयता को सशक्त रूप से प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार उपन्यास का नायक जिस प्रेमिका को भारत छोड़कर आ गया था । वह नायक की प्रेरणा और प्रेम पा स्वाधीनता सेनाानी बन जाती है।  पूरा उपन्यास विडंबनाओँ, कुरीतियों, दुर्बलताओं , द्वेष से ऊपर उठकर मानवता का सशक्त दस्तावेज बन गया है।
कँवल जी गिरमिटियों के इस उपन्यास का चित्रण करते हुए गिरमिटिया काल पर नहीं रूके।  सामाजिक - राजनैतिक जागृति और 20वीं सदी के नागरिक होने के नाते अपने अधिकारों को लेकर भारतीयों के संघर्ष को उन्होंने अगले उपन्यास  करवटप्रस्तुत किया। 



'धरती मेरी माता’  उपन्यास का पहला संस्करण 1978  में प्रकाशित हुआ , दूसरा संस्करण 1999 मंे।  दूसरे संस्करण की भूमिका में वे लिखते हैं - 'कुछ लोग कहते हैं कि वक्त रूकता नहीं। वह आगे ही बढ़ता है लेकिन अपनी इस रचना को पढ़कर मुझे महसूस होने लगा कि जैसे वक्त पिछले इक्कीस सालो से एक ही स्थान पर ठहरा हुआ है। वक्त की घड़ी की सुईयां एक ही जगह पर रूककर खड़ी है। जमीन की जो समस्याएं भारतीय किसानों के लिए वर्षों से पहाड़ बनकर खड़ी हैं, वे आज भी उसी तरह सिर उठाए खड़ी हैं। '

'धरती मेरी माता’  उपन्यास मे फीजी मे भूमि संबंधी कानूनों की समस्या को उठाया गया है और इस संबंध मे भूमि के साथ किसानों के गहरे - आत्मीय और मां - बेटे जैसे संबंध  को रेखंकित किया गया है। कँवल जी ने यह कथा बा के पास के ऐसे गाँव के किसान की कहानी के माध्यम से कही है जिसमे उसकी जमीन  ले ली जाती है। उसकी इच्छा है कि उसके मृतक शरीर को उसी जमीन मे जलाया जाए और वो अपनी पीड़ा इस तरह व्यक्त करता है ‘  यह काूनन भी कितना अंधा होता है। जो जमीन में हल चलाता है और इस मिट्टी से सोना निकालता है, उसका पक्ष नहीं करता । इतने साल हम इस मिट्टी े में मिट्टी होते रहे मगर ये खेत फिर भी पराये कहलाते हैं ।  अगर विधाता ने हमारे भाग्य मे यहां भी उजड़ना और ठोकरें खाना ही लिखा है ऊपर वाले की मर्जी। ‘  'धरती मेरी माता' उपन्यास विचार और संवेदना का सशक्त मिश्रण है। यह उपन्यास फीजी के पाठ्यक्रम का भी हिस्सा है।
कँवल जी सशक्त कवि है। उन्होने फीजी के कवियो के संकलन  का संपादन किया है और फीजी की कविता शक्ति को एक स्थान पर प्रस्तुत किया है। उनकी अपनी कविताएं अपने समय का आइना हैं। 1987  के कू याने विद्रोह के कुछ दिन बाद शांतिदूत में प्रकाशित एक कविता उनके काव्य कौशल, संवेदन शक्ति और हिम्मत की कहानी कहती है।उन दिनों  राजनीतिक अस्थिरता चरम पर थी। देश में अशांति थी , हिंसा की लपटें जल रही थी ऐसे में  कंवल जी की प्रकाशित कविता उनके साहस और राजनीतिक परिस्थितियो के सटीक आकलन का प्रमाण हैं।  देखिए-

जीवन संग्राम
जीवन संग्राम में जूझते , संघर्ष करते लोग,कभी रोते , कभी हंसते, ये डर डर जीते लोग
कभी सीनों में धड़कती , उम्मीदों की हलचल, कभी बनते कभी टूटते, दिलों में ताजमहल
पत्थर जैसी परिस्थतियों के बनते रहे पहाड़, भविष्य उलझा पड़ा है , कांटे - कांटे आज
चेहरों पर अंकित अब, पीड़ा की अमिट प्रथा, हर भाषा में लिखी हुई , यातनाओं की कथा
जोश, उबाल व आक्रोश, छाती में पलटे हर दम, चुपचाप ह्रदय में उतरते सीढी सीढी गम
दर्द की सूली पर टंगा, कोई धनी है या मजदूर, है सब के हिस्से आ रहे, ज़ख्म और नासूर

कँवल जी ने 1983 के विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लिया था। वे   सम्मेलन की भीड़ को याद करते हैं । कहते हैं, यद्यपि हमारे स्थान आरक्षित थे परंतु वहां भीड़ मे ं हमारे लिए बैठने का कोई स्थान  नहीं बचा था । भारत से हिंदी के सैंकड़ो प्राध्यापक वहां उपस्थित थे। वो तो भला हो सुरेश ऋतुपर्ण का कि उन्होंने पहचान लिया और स्थान दिलवा दिया । उन्हेी की तरह की कुछ यादें पंडित कमला प्रसाद मिश्र की भी हैं जिन्होंने तृतीय विश्व हिंदी सम्मेलन मे भाग लिया था और उन्हें वहां सम्मानित भी किया गया था।  कँवल जी कहते हंैं कि  उन्हें भारत जाने का लाभ यह हुआ कि सम्मेलन के पश्चात दिल्ली के सप्रू हाऊस में उनकी पुस्तक  सवेरा' का लोकार्पण हुआ । कार्यक्रम का आयोजन अमरनाथ वर्मा हिंदी बुक सेंटर  द्वारा  किया गया था।  कार्यक्रम में महीप सिंह और दिल्ली के बहुत से प्रमुख लेखक उपस्थित थे। कँवल जी के मन में उस समय की यादें अभी तक ताजा हैंं। अमेरिका में आयोजित विश्वहिंदी सम्मेलन में कँवल जी को सम्मानित किया गया था पर उम्र के तकाज़े और भीड़- भाड़ और समारोहों से दूर रहने की अपनी आदत के कारण वे नही गए। उनकी पत्नी भी फीजी की महत्वपूर्ण कवियित्री हैं। हाई कमीशन उनका नाम 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन में सम्मान के लिए बनी प्रस्तावित सूची में भारत भेजना चाहता था। परंतु पति - पत्नी का कहना था वे इस आयु में भारत जाने में और ऐसे समारोहो में भाग लेने में समर्थ नहीं हैं। उन्होंने किसी और विद्वान का नाम भेजने की सलाह दी। ऐसी निस्पृहता और अनासक्ति और लेखन के साथ ऐसी प्रतिबद्धता, निष्ठा और प्रेम ही उन्हें विशिष्ट बनाता है।

जिस तरह से प्रेमचंद अपने समाज की एक - एक समस्या को समझ उसको बारीकी से पकड़ उपन्यास लिखते हैं उसी प्रकार कँवल जी की पकड़ अपने देश और समाज  की नब्ज पर है। आपको अगर फीजी को समझना है तो सवेरा , करवट , धरती मेरी माता जैसे उपन्यासों को पढ़ना, जानना और  समझना आवश्यक है। ये उपन्यास नहीं है ,यह पिछले 150 वर्षों का फीजी का रचनात्मक इतिहास है।










Tuesday 13 October 2015

युनिवर्सटी ऑफ साउथ पैसिफिक में हिंदी दिवस कार्यक्रम



युनिवर्सटी ऑफ साउथ पैसिफिक में हिंदी दिवस का कार्यक्रम पिछले वर्षों की तरह धूमधाम से मनाया गया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि भारत के हाई कमीशन में हाई कमिश्नर श्री गीतेश   सरमा थे। उनके साथ उनकी धर्मपत्नी भी थी। मंच पर फीजी सेवाश्रम संघ के प्रमुख श्री संयुक्तानंद भी थे कार्यक्रम की संयोजिका श्रीमती इंदु चंद्रा थी और संचालन श्री शैलेश ने किया।
मुख्य अतिथि दीप प्रज्वलित करते हुए

                              मंच पर आसीन मुख्यअतिथि उनकी पत्नी व स्वामी संयुक्तानंद
 कार्यक्रम में उपस्थित लोग
 मुख्य अतिथि का स्वागत
 पुरस्कृत बच्चे

प्राईमरी सेक्शन में प्रथम पुरस्कार प्राप्त बच्चा जिसने सबका दिल जीत लिया

युनिवर्सटी ऑफ फीजी में हिंदी दिवस कार्यक्रम



3  अक्तूबर 2015 को  ही युनिवर्सटी ऑफ फिजी में भी हिंदी दिवस का कार्यक्रम आयोजित किया गया । इस कार्यक्रम की मुख्य अतिथि श्रीमती उर्मिल आर्य थी । कार्यक्रम मे निर्णायक के रूप में शिक्षा विभाग से श्रीमती श्यामला लता , श्री नीतेश कुमार, श्रींमती रोहिणी लता उपस्थित थी।  कार्यक्रम में स्कूल विद्यार्थियों की भाषण प्रतियोगिता भी आयोजित की गई थी। कार्यक्रम की संयोजिका श्रीमती सुकेश बली थी

कार्यक्रम की मुख्य अतिथि श्रीमती उर्मिल आर्य, संयोजिका श्रीमती सुकेश बली व शिक्षा विभाग के अधिकारियों व हिंदी अध्यापक संघ के सदस्यों के साथ

 कार्यक्रम की मुख्य अतिथि श्रीमती उर्मिल आर्य, संयोजिका श्रीमती सुकेश बली व शिक्षा विभाग के अधिकारियों व हिंदी अध्यापक संघ के सदस्यों के साथ


हिंदी अध्यापक परिषद के श्री शैलेन चंद अपने विचार प्रस्तुत करते हुए

फीजी नेशनल युनिवर्सटी में हिंदी दिवस का कार्यक्रम


फीजी नेशलन युनिवर्सटी में दिनांक 3 अक्तूबर ,2015 को हिंदी दिवस का कार्यक्रम आयोजित किया गया ।कार्यक्रम की संयोजिका श्रीमती विद्या सिंह थी। कार्यक्रम में स्कूल के प्रतिभागियों ने तो अपनी कविता पढ़ी विशेष बात यह थी कि बड़ी संख्या में फैकल्टी सदस्यों ने अपनी कविताएं पढी़ जिसमें युनिवर्सटी की भाषा और साहित्य विभाग की अध्यक्षा भी थी। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में भारतीय हाई कमीशन के द्वितीय सचिव, हिंदी और संस्कृति अनिल शर्मा ने भी अपनी कुछ  कविताएं पढ़ी।



अपना वक्वत्वय देत हुए अनिल शर्मा, हाई कमीशन में द्वितीय सचिव, (हिदी एवं संस्कृति)
संयोजिका - श्रीमती विद्या सिंह और सुभाषिनी के साथ 
श्रीमती विद्या सिंह स्वागत करते हुए
फैकल्टी सदस्यों के साथ चित्र